Institute of Applied Sanskrit- Shaastriya Knowledge | ब्राह्मणीय व्यवहार की मूल्यांकन पद्धति ब्राह्मणीय व्यवहार की मूल्यांकन पद्धति | Institute of Applied Sanskrit- Shaastriya Knowledge
Institute of Applied Sanskrit- Shaastriya Knowledge
(An undertaking of Angiras Clan), Chandigarh

अनुप्रयुक्त संस्कृत- शास्त्रीय ज्ञान संस्थान
(आंगिरस कुल का उपक्रम), चण्डीगढ़

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ब्राह्मणीय व्यवहार की मूल्यांकन पद्धति

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1. क्या मैनें प्रयत्न के द्वारा तृष्णा के बन्धनों को काट दिया है?(धम्मपद, बह्मण-वग्ग, श्लोक संख्या ३८३)

2. क्या मैंने समस्त कामनाओं को भगा दिया है? (श्लो० सं० ३८३)

3. क्या मैं इस संसार को नाशवान् जानकर अकृत अर्थात् अनश्वर निर्वाण को जानने की चेष्टा करता हूँ? (श्लो० सं० ३८३)

4. क्या मैं संयम और समाधि में पारंगत हूँ? (श्लो० सं० ३८४)

5. क्या मैनें संयम और समाधि से प्राप्त ज्ञान द्वारा अपने समस्त बन्धनों को काटने का प्रयास किया है? (श्लो० सं० ३८४)

6. क्या मैं द्वन्द्व में न फंस कर अनासक्त भाव से जीवन व्यतीत करता हूँ? (श्लो० सं० ३८५)

7. क्या मैं निर्भय हूँ? (श्लो० सं० ३८५)

8. क्या मैं दिन-रात अपने कर्म को करते हुये अपने तप से अर्थात् स्व तेज से प्रदीप्त होता हूँ? (श्लो० सं० ३८७)

9. क्या मैनें अपने पापों को बहा कर अपनी चर्या और आचरण को सम्यक् बनाया है? (श्लो० सं० ३८८)

10. क्या मैं प्रव्रजित हूँ? अर्थात् क्या मैनें अपने चित्तमल को प्रव्रजित(दूर) कर दिया है? (श्लो० सं० ३८८)

11. क्या मैं स्वयं की रक्षा करना जानता हूँ? (श्लो० सं० ३८९)

12. क्या मैं स्वयं पर हिंसा करने वाले के समक्ष स्वयं को समर्पित कर देता हूँ? (श्लो० सं० ३८९)

13. क्या मैनें अपने मन को प्रिय लगने वाली वस्तुओं से हटा लिया है? (श्लो० सं० ३९०)

14. क्या मैं अपने हिंसक मन से निवृत्त हो गया हूँ? (श्लो० सं० ३९०)

15. क्या मन में हिंसा से उत्पन्न होने वाले दुःख को मैं शान्त कर चुका हूँ? (श्लो० सं० ३९०)

16. क्या मैं शरीर, वाणी और मन के द्वारा पापाचरण करता हूँ? (श्लो० सं० ३९१)

17. क्या मेरी शरीर, वाणी और मन यह तीनों स्थान संयत हैं? (श्लो० सं० ३९१)

18. क्या मैनें किसी सम्बुद्ध अर्हत द्वारा उपदिष्ट धर्म का ज्ञान प्राप्त किया है? (श्लो० सं० ३९२)

19. क्या मैं ज्ञान प्रदान करने वाले का सत्कार कर उसे नमस्कार करता हूँ? (श्लो० सं० ३९२)

20. क्या मैं को धारण करने की अपेक्षा अपने भीतर के सत्य और धर्म में प्रतिष्ठित हूँ?(श्लो० सं० ३९३)

21. क्या मैं बाह्य प्रतीकों से तो स्वयं को शुद्ध करता हूँ, किन्तु मेरा हृदय अन्धकार से भरा है? (श्लो० सं० ३९४)

22. क्या मैं शारीरिक वेश-भूषा अर्थात् वस्त्रादि, शरीर सौष्ठव पर अधिक ध्यान न देकर अपितु अकेला ध्यान में रत रहता हूँ? (श्लो० सं० ३९५)

23. क्या मैं केवल कुल से ब्राह्मण हूँ अथवा मैं अकिञ्चन और अपरिग्रह व्रत का पालन करते हुये ब्राह्मणत्व को धारण करता हूँ? (श्लो० सं० ३९६)

24. क्या मैं धन से ममता रखने वाला हूँ, और केवल अभिवादनमात्र के लिये अच्छे शब्दों का प्रयोग करता हूँ? (श्लो० सं० ३९६)

25. क्या मैं समस्त बन्धनों को काट कर विषय-संग से मुक्त, तृष्णारहित और अनासक्त हूँ? (श्लो० सं० ३९७)

26. क्या मैनें अविद्या, आसक्ति और संशयादि के बन्धनों को तोड़कर संसार की श्रृंखला को भी फेंक दिया है? (श्लो० सं० ३९८)

27. क्या मैं क्षमाशील तथा सहनशील हूँ? (श्लो० सं० ३९९)

28. क्या मैं क्रोध न करने वाला सदा व्रतानुष्ठान में लगा रहता हूँ? (श्लो० सं० ४००)

29. क्या मैं सुशील, अनभिमानी और जितेन्द्रिय हूँ? (श्लो० सं० ४००)

30. क्या मैं कार्य को करते हुये भी कमलपत्र की भाँति उसमें लिप्त नहीं होता ? (श्लो० सं० ४०१)

31. क्या मैं स्वयं को जन्ममरण के भार से मुक्त मानता हूँ? (श्लो० सं० ४०२)

32. क्या मैनें अपने दुःखों का क्षय देखकर सर्वथा अनासक्त हो गया हूँ? (श्लो० सं० ४०२)

33. क्या मैं सन्मार्ग और कुमार्ग को जानकर निर्वाण की उत्तम स्थिति तक पहुँच चुका हूँ? (श्लो० सं० ४०३)

34. क्या मैं मेधावी और स्थितप्रज्ञ हूँ? (श्लो० सं० ४०३)

35. क्या मैं न किसी को मारता हूँ और न किसी को मरवाने का कार्य करता हूँ? (श्लो० सं० ४०५)

36. क्या मैं समस्त चर और अचर प्राणियों के प्रति दण्ड की भावना रखता हूँ? (श्लो० सं० ४०५)

37. क्या मैं द्वेष करने वालों के प्रति द्वेषरहित, शस्त्र उठाये हुये व्यक्तियों के प्रति शान्त भाव से स्थित और संग्रह करने वाले के मध्य असंग्रही बन कर रहता हूँ? (श्लो० सं० ४०६)

38. क्या मेरे राग, द्वेष, अभिमान तथा दम्भादि अवगुण गिर चुके हैं? (श्लो० सं० ४०७)

39. क्या मैं अकर्कश वाणी बोलता हूँ? (श्लो० सं० ४०८)

40. क्या मेरी वाणी ज्ञानयुक्त है? (श्लो० सं० ४०८)

41. क्या मेरी वाणी में सत्य का समावेश है? (श्लो० सं० ४०८)

42. क्या मेरी वाणी दूसरों को कष्ट पहुँचाने वाली है? (श्लो० सं० ४०८)

43. क्या मैं सर्वदा न प्राप्त की गई वस्तु को ग्रहण करने में रत रहता हूँ? (श्लो० सं० ४०९)

44. क्या मेरी इस लोक या परलोक में तृष्णा शेष है? (श्लो० सं० ४१०)

45. क्या मेरी वस्तुओं में लीनता शेष है? (श्लो० सं० ४११)

46. क्या मैं प्रज्ञावान हूँ? (श्लो० सं० ४११)

47. क्या मैं “यह कैसे” तथा “वह कैसे” इस प्रकार के संशयों में रत रहने वाला हूँ? (श्लो० सं० ४११)

48. क्या मैं पुण्य और पाप दोनों के संग से परे हो चुका हूँ? (श्लो० सं० ४१२)

49. क्या मैं चन्द्रमा के समान स्वच्छ, निर्मल, प्रसन्न तथा निष्कलंक हूँ? (श्लो० सं० ४१३)

50. क्या मैं इस दुर्गम संसार के कठिन मार्ग के मोह को लांघ कर पार कर चुका हूँ? (श्लो० सं० ४१४)

51. क्या मैं ध्यान में रत रहने वाला, निष्पाप, संश्यरहित और अनासक्त होकर संसार से निवृत्त हो चुका हूँ? (श्लो० सं० ४१४)

52. क्या मैं कामनाओं का परित्याग कर गृहहीन होकर संसार में विरक्त हो चुका हूँ? (श्लो० सं० ४१५)

53. क्या मुझे जन्म की कामना शेष है? (श्लो० सं० ४१५)

54. क्या मुझमें जन्म की तृष्णा शेष है? (श्लो० सं० ४१६)

55. क्या मैं समस्त तृष्णाओं को छोड कर गृहहीन हुआ संसार से विरक्त हो चुका हूँ? (श्लो० सं० ४१६)

56. क्या मैं मानुषिक और दिव्य दोनों प्रकार के पदार्थों से ऊपर उठ चुका हूँ? (श्लो० सं० ४१७)

57. क्या मैं सब प्रकार की आसक्तियों से छूट चुका हूँ? (श्लो० सं० ४१७)

58. क्या मैं राग और वैराग्य दोनों को छोड़कर शान्त हो चुका हूँ? (श्लो० सं० ४१८)

59. क्या मैं क्लेशबीजों से रहित हो गया हूँ? (श्लो० सं० ४१८)

60. क्या मैं प्राणियों की उत्पत्ति और विनाश को पूर्णतया जानने वाला हूँ? (श्लो० सं० ४१९)

61. क्या मैं अतीत, भविष्य और वर्तमान की किसी भी वस्तु में आसक्ति न रखते हुये सर्वथा अकिञ्चन की भाँति जीवन व्यतीत करता हूँ? (श्लो० सं० ४२१)

62. क्या मैं समस्त वासनाओं को जीतकर निष्पाप, विद्यास्नात और प्रबुद्ध हूँ? (श्लो० सं० ४२२)

63. क्या मैं तत्त्व को जानने वाला ज्ञानवान हूँ? (श्लो० सं० ४२३)