Institute of Applied Sanskrit- Shaastriya Knowledge | Idea of the Center Idea of the Center | Institute of Applied Sanskrit- Shaastriya Knowledge
Institute of Applied Sanskrit- Shaastriya Knowledge
(An undertaking of Angiras Clan), Chandigarh

अनुप्रयुक्त संस्कृत- शास्त्रीय ज्ञान संस्थान
(आंगिरस कुल का उपक्रम), चण्डीगढ़

House no - 1605, Sector 44 B, Chandigarh. (UT). Pin- 160044

E-mail - sanskrit2010@gmail.com, Mobile - 9464558667

Collaborators in Academic Karma - Saarswatam ®, Chandigarh(UT), Darshan Yoga Sansthaan, Dalhousie(HP)

Idea of the Center

  1. WHAT KIND OF FUTURE DO WE WANT? वयं सनातनधर्मानुरागिणः स्वात्मार्थे कीदृग्विधं भाविजीवनोत्कर्षं भावयामः?
  2.  WHAT DO WE WANT TO SUSTAIN, FOR WHOM AND FOR HOW LONG? कमर्थं पालयितुं रक्षितुं वा वयं बद्धादराः? तमर्थं कस्यार्थे कतिकालपर्यन्तं रक्षणाय वयं दॄढ़व्रताः वर्तामहे?
  3. WHAT DOES OUR THINKING HAVE TO DO WITH OUR CURRENT REALITY & OUR ABILITY TO ACHIEVE? अस्माकं विचारप्रवणतायाः वर्तमानकालवर्तिना याथार्थ्येन सह कीदृशः  सम्बन्धः? तत्प्राप्तौ च कियती चास्माकं योग्यता क्षमता वा?
  4. WHAT DOES OUR EDUCATION HAVE TO DO WITH OUR THINKING? अस्माकं विवेकवती संवेदनायाः अद्यतनीन शिक्षा किं किं साधयितुं क्षमा?

शोधकेन्द्रेति संज्ञाकरणे सोद्देश्यं लक्षणकथनम् (DEFINING SDHDR&T CENTER)

  1. We R Not Believers But Seekers (लक्ष्यजिज्ञासानुसंधिरेवास्माकं परं प्रयोजनं  न त्वन्धप्रथानुकरणम्)
  2. Ignorance Is Unlimited And Knowledge Is Limited. (ज्ञानापेक्षया ’अज्ञानं’ तु बहुविस्तारपरं साडम्बरम्)
  3. With Limitations Of Body & Mind When We Try To Grasp Boundless Then Problem Arises.  (शरीरेन्द्रियादिपरिच्छेदकारणतया अपरिच्छिन्नानन्तस्यानुभव -जिज्ञासोत्त्थाने विघ्नबाहुल्यम्)
  4. Bondage Is A Problem But Freedom Is Greater Problem. (अस्त्येव बन्धनं तु कष्टकरम् किन्तु ततोऽपि कष्टतरं निर्बन्धस्वतन्त्रतानुसन्सधानम्)
  5. Man Is Not Defined But Animal Is Defined. (सत्यपि निश्चिते पशुव्यवहारज्ञाने मानवव्यवहारबोधस्तु अनिश्चित एव)
  6. With Hunger U Have One Problem But Tummy Full U Have 100s Of Problems. ( इह संसारे बुभुक्षितानां बुभुक्षाएवैका समस्या किन्तु पूरितोदराणां शताधिकाः)
  7. All Knowledge Is With In U. (मानवस्यान्तर्निहितमेव सर्वविधं ज्ञानम्)
  8. There Can Not Be Anything New As Everything In The Name Of New Is The Re-product Of The Data U Already Have. (नास्ति खलु किमपि सर्वथा नवीनमसत्कार्यं यद् यद्धि नवीनं मौलिकं वा तत्सर्वं पूर्वस्यैवान्तर्वर्तिनः पुनरुद्धारः)
  9. Thoughts R Just Sign Posts Not The Ultimate. (विचारास्तु  दिङ्मात्रदर्शिनः संकेतकाः एव न तु अन्तिमसत्यपरायणाः)
  10. Truth Is Verbal – truth And Existential Truth. (द्विविधं खलु सत्यं– वाचिकं सत्तात्मकं च)
  11. Things Which R True May Not Exist Like Math. (यत्किमपि सत्यं तत्सर्वं नास्त्येव गणितशास्त्रप्रकृतिकम्)
  12. Language Is Either Agrarian Or Market. (द्विविधा एव भाषा  –  कृषिमूला वाणिज्योद्योगमूला)
  13. When We R Happy We Never Ask Why We Exist Or What Is The Purpose Of Life. ( सानन्ददशायां वयमेतन्न जानीमः यदस्माकं जीवनस्यास्ति किमपि प्रयोजनमस्तित्वं वा)
  14. Peace Is Primary And Wellbeing Is Ultimate. (अस्मदर्थे मुख्या प्रथमतमा तु शान्तिः परञ्च कल्याणरूपा स्वस्थता चास्माकं चरमतमं श्रेयः)

Who are these PEOPLE who motivated to work and to design this research center –

यह जमाना बीसवीं शताब्दी से उतना ही दूर था जितना सुपरसोनिक से कोई गर्दभ। रफ्तार भी वही। हर चीज ढीली-ढाली थी, और लोग देखने में गंवार से लगते थे। दाढ़ी बढ़ी हुई, बाल बिखरे हुए, विचार उलझे हुए। पर वे बीसवीं शताब्दी के लोगों की ओर उंगली उठा कर कह रहे थे –  “उन मूर्खों को देखो। वे अधिक खाने के लोभ में अपने समुद्र और आसमान तक को खाते जा रहे हैं। अपने भविष्य को खाते जा रहे हैं और, फिर भी, अपने को विज्ञानी समझते हैं।”

वे हजारों साल की दूरी के आस-पास देख रहे थे, जैसे समय भी उनके लिए किसी मैदान की तरह सपाट हो। उनके इस उपहास को सुन कर अपनी २१वीं शताब्दी के ज्ञान पर गरूर करने वाला मैं शर्म से सिर तक नहीं उठा पा रहा था |उनके इस तरह हंसने का कुछ अधिकार भी था, क्योंकि

  • उनकी नदियां सिर्फ बरसात में मैली होती थीं,
  • उनका आसमान सिर्फ आंधी चलने पर मैला होता था,
  • उनकी धूप केवल बादल घिरने पर मैली होती थी,
  • उनके विचार केवल आवेग की प्रखरता में मैले होते थे,
  • उनका शरीर केवल काम करते समय मैला होता था,
  • उनकी आत्मा तो मैली होती ही नहीं थी।

वे हंसते थे तो उनकी हंसी में उनका आह्लाद झलकता था, दर्प झलकता था, व्यंग्य झलकता था, पर मन की मलिनता नहीं झलतती थी। वह उनके दिल दिमाग में कहीं थी ही नहीं।  वे बहुत कम दुखी होते थे, क्योंकि दुख की उनकी परिभाषा भिन्न थी। जब दुख उनकी परिभाषा के अनुसार भी दुख बन जाता था तो उससे आंसू के स्थान पर दर्शन टपकने लगता था।  उनके चेहरे पर ज्ञान तेज और तुष्टि बन कर झलकता था। उनकी जरूरतें बहुत कम थीं। वे सब कुछ अपने लिए नहीं चाहते थे। पेट भरने के बाद उनकी भूख तेज नहीं होती थी। वे बहुत कम चीजों से डरते थे, बहुत अधिक चीजों पर भरोसा करते थे और घृणा तो किसी चीज से करते ही नहीं थे।

उनकी ज्ञानमीमांसा में ज्ञान ज्ञान नहीं था, परले दरजे का अज्ञान था। उनका मानना था कि इससे आदमी आदमी की तरह रहने की जगह चालाक जानवरों की तरह रहने लगता है। बहुत अधिक खाता है, बहुत अधिक पीता है, बहुत अधिक भोगता है, इंद्रियों का बहुत अधिक गुलाम बनता जाता है और जीवन मरण के चक्र में बहुत अधिक उलझता जाता है। वह अपनी चालाकी में भी मूर्खता ही करता है, क्योंकि कालदेव के लिए अपने शरीर को बकरे की तरह पाल कर मोटा करने के अतिरिक्त वह और क्या करता है ? असली ज्ञान तो जीवन और जगत के प्रति सही दृष्टिकोण है। एक विचित्र बात यह थी कि उन्हें अज्ञान से भी उतना ही प्रेम था जितना ज्ञान से था।   वे कहते थे इस दुनिया में शत्रु भाव से न रहो। मैत्री से रहना सीखो।

उनका दर्शन आज भी इतना प्राणवान है कि लगता है, इसे हमारे युग के गंभीर सवालों को ही ले कर लिखा गया है। वे दुनिया की चिंता न करते हुए भी अपनी दुनिया से अधिक हमारी दुनिया के बारे में सोच रहे थे-

पर्यावरण के ध्वंस पर,

प्राकृतिक साधनों के अपव्यय पर,

उपभोक्ता संस्कृति की विकृतियों पर,

विज्ञान के पागलपन पर,

मानवमूल्यों के ह्रास पर,

संवेदन शून्यता की विडंबना पर

और भाषा के दुष्प्रयोग पर।

इस दृष्टि से वे आज के महान से महान वैज्ञानिक की तुलना में भी अधिक दूरदर्शी थे। इन्हीं कहानियों को पढ़ते हुए दुनिया से होते हुए अपनी दुनिया में प्रवेश करने का छोटा रास्ता निकालने की एक कोशिश हम यहां करने जा रहे हैं। इसमें सफल हो पाते हैं या नहीं, यह तो आगे चल कर ही पता चलेगा एक बात तय है। जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं और जिस पर एक भारतीय के नाते हमें सचमुच गर्व है उसकी प्राणवायु उनका चिंतन ही है।

सनातन धर्म के सन्दर्भ में आधुनिकता के दो रूप हैं एक है – पुरानी आधुनिकता जो मूल्य आधारित है और  दूसरी है – नई आधुनिकता जो मूल्यों के प्रति मोहभग से उत्पन्न । सनातन धर्म के सन्दर्भ में प्रथम संक्रान्ति काल वह था जब संशय या सन्देह से  अनेकान्तवाद, अनात्मवाद और आत्मवाद आविर्भूत हुए। सनातन धर्म का दूसरा संक्रान्ति काल मुस्लिम आक्रान्ताओं के आने पर आरम्भ हुआ, जिसमें सनातन धर्म पड़ती हुई मार में अपने जीने का आधार भक्ति में खोजने में लग गया  और  सनातन धर्म का तीसरा संक्रान्तिकाल स्वतन्त्रता पूर्व  समाज-सुधार आन्दोलनों से आरम्भ हुआ । सती प्रथा और जाति प्रथा के विरोध में और शिक्षा के समर्थन में लोग आने लगे थे। तब वह पुराना सनातन धर्म आधुनिक होने का प्रयत्न कर रहा था। सामाजिक-सुधार के आन्दोलन के सूत्रधार मूल रूप में सनातन धर्मी ही थे । सामाजिक सुधार वाले सनातन धर्मियों की इस प्रथम कोटि की इस धारा के साथ सनातन धर्मियों की एक और धारा दृष्टिगोचर होती है वह है स्वतन्त्रता सेनानियों और क्रान्तिकारियों की।

इनके साथ ही एक तीसरे प्रकार के सनातन धर्मी वे थे जिनका उल्लेख इतिहास के पृष्ठों में नहीं मिलता । वे ऐसे सनातन धर्मी थे जो अपने घरों में घोर दरिद्रता और संकटों में भी अपने व्रत का पालन रहे । अभावग्रस्तता भी स्वधर्म के प्रति उन लोगों में विमुखता या अनास्था नहीं ला सकी। इन सनातन धर्मियों ने कोई बड़े काम नहीं किए, बड़े नारे नहीं दिए, युद्ध और हिंसा नहीं की परन्तु साहित्य रचना के व्रत का निर्वाह पूरी निष्ठा से किया। कुल मिलाकर उपरोक्त प्रकार के सनातन धर्मियों का योगदान स्वतन्त्रता प्राप्ति तक बहुत स्पष्ट रूप से विचार और व्यवहार के स्तर पर दिखाई देता है।

सनातन धर्म की आधुनिकता  की चतुर्थ संक्रान्ति काल आरम्भ हुआ १९४७ की स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जिसमें सनातन् धर्म के विचार और व्यवहार की दशा और दिशा बिल्कुल अचानक एकदम बदल गई। स्वतन्त्र भारत में नए आधुनिक सनातन् धर्म की दशा और दिशा की बात बहुत कुछ सन्देहास्पद हो गई । क्योंकि जब तक स्वतन्त्रता प्राप्त नही हुई थी तब तक तो नेताओं के पास एक लक्ष्य था, आज़ादी का, स्वतन्त्रता का, स्वाधीनता का । परन्तु जिस दिन वह स्वाधीनता, स्वतन्त्रता, आज़ादी मिल गई उस दिन वह लक्ष्य भी समाप्त हो गया, लक्ष्य से जुड़ी सभी सनातन धर्मी मूल्य एवम् क्रियाएं अर्थहीन हो गईं और नेताओं और आंग्लिक-संविधानविदों के सामने प्रश्न उपस्थित हो गया कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद क्या करें और कैसे करें ? इस प्रश्न के उत्तर का चुनाव नेहरूवादी विचारधारा ने औद्योगिकरण के माध्यम से नए भारत के निर्माण का किया । आनन फानन में किए गए औद्योगिक भारत के निर्माण की कल्पना ने सारे भारत के इतिहास, परम्परा, मूल्यों, विचारों और व्यवहारों में विसङ्गति पैदा कर दी और सनातन धर्म और सनातन धर्मी हाशिए पर जा खड़ा हुआ ।

मुख्य विचार बिन्दु-

  1. क्या भारतीय शिक्षाविदों एवम् बुद्धिजीवियों के पास अपने परिवेश और यथार्थ के अनुकूल मानवाधिकार सम्बन्धी कोई शब्द या अवधारणा है?
  2. क्या भारत के इतिहास में मानवाधिकार सम्बन्धी कोई तथ्य/घटना/ स्थिति ऐसी रही जिसे हम विश्व समुदाय के सामने निर्भीक रूप से प्रस्तुत करने में गर्व अनुभव कर सकें?
  3. भारतीय शिक्षा प्रणाली किसी भी स्तर पर मानवाधिकार की संस्कृति को स्थापित करने में सहायक है?
  4. वर्तमान शिक्षा से किस तरह के मानवीय व्यक्तित्व की हम अपेक्षा करते हैं?
  5. भारतीयों की बुद्धिवादिता [Indian intellectualism] का विश्व स्तर पर मानवाधिकार के क्षेत्र में क्या मान्य योगदान है?

भारतीय मानवाधिकार प्रशिक्षण विधि –

१.सम्वेदना

२. संस्कार

३. अधिकार

सभी मनुष्य चेतना की अभिव्यक्ति है

अतः उनका अस्तित्व (अस्ति / being ) है

और

वे सभी तीन प्राकृतिक एषणाओं (पुत्र, वित्त, यश) से व्यवहार युक्त होते हुए जीवन पर्यन्त

अपने होने (भवति / becoming) की सार्थकता और सफ़लता की सिद्धि के लिए  सम्पूर्ण मनुष्यता, राष्ट्रों, समाजों द्वारा निश्चित एवम् निर्बाध रूप से अधिकृत हैं,

और

क्योंकि सभी राष्ट्र (बिना अपवाद के) जैसे धरती सभी प्राणियों को समान रूप से धारण करती है, वैसे ही बिना भेद- भाव, ऊँच-नीच के {यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते समम् । तथा सर्वाणि भूतानि बिभ्रताः पार्थिवं व्रतम्॥ (मनुस्मृति, १९-३१), अज्येष्ठासो अकनिष्ठासो एते सं भ्रातरो वाव्रुधुः सौभागाय । (ऋग्वेद,५-६०५)

सभी के लिए सुख चाहते हैं (सर्वे भवन्तु सुखिनः)

सभी के लिए स्वास्थ्य चाहते हैं (सर्वे भवन्तु निरामयाः)

सभी के लिए कल्याण एवम् दुःख निवृत्ति चाहते हैं (सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद्दुभाग्भवेत्)

सभी समान मन्त्र, मन और चित्त चाहते हैं (समानो मन्त्रः, समानं मनः समानं चित्तमेषाम्)

अतः सभी मनुष्य (बुभुक्षा,भय,जिज्ञासा और सौन्दर्य  के प्राकृत भावों से युक्त) समान रूप से –

 1.धर्म, 2.अर्थ और 3.काम की सिद्धि के लिए मर्यादित (संस्कारित) स्वतन्त्रता से अधिकारी हैं,

तथा सभी राष्ट्र इस तथ्य के लिए निरपवाद रूप से अभय प्रदान करते हैं।

ताकि भविष्य में मनुष्यता उस स्तर को प्राप्त कर सके ,जहाँ न राज्य हो, न राजा हो, न दण्डव्यवस्था हो और न ही दण्ड देने वाला हो (नैव राज्यं न राजाऽऽसीन्न दण्डो न च दाण्डिकः। धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्॥)

संगणकीय-संस्कृतम्
COMPUTATIONAL SANSKRIT

Technology (Western Theories + Indian theories

The basic objectives of Computational Sanskrit are:- 

  1. To make use of the principles and techniques available in व्याकरण, न्याय, मीमांसा, साहित्यशास्त्र for developing new paradigms for the computer.
  2. To introduce softwares for the faculties in the scientific work and Shaastric world for making best use of the infra-structural facility.

Information Theory:  Computational Sanskrit:

  1. Language : Means of coding the information.
  2. Information Coding : How much, Where and How
  3. Brevity : Brevity to achieve generalization.
  4. Programming Languages : Concepts, Techniques and Models

 

Indian and AI techniques

प्रमा / यथार्थ (valid knowledge)

–प्रत्यक्ष (perception)à icon (temp storage) /schema (blue print)/ percept (assembling units)

–अनुमान (inference)à predicate logic

–उपमान (analogy)à  learning by induction? (समान्यतोदृष्ट)

–शब्द (verbal testimony)à language

अप्रमाण/ अयथार्थ (invalid knowledge)

–संशय (doubt) à ambiguity resolution

–विपर्यय (error) à bugs

–तर्क (hypothetical argument)à heuristics

–स्मृति (memory) àgaps in knowledge

  1. Features of Sanskrit that makes it extra ordinary language
  2. Mechanism of generation new words in Sanskrit
  3. Similarities between Sanskrit and Programming Languages
  4. Verbless sentences
  5. The building blocks of Sanskrit Langauage
  6. No punctuation in Sanskrit
  7. The flexibility of Sanskrit
  8. Efficiency of Sanskrit- Less word more meaning
  9. Temporal order of words in Sanskrit

Features of Sanskrit that makes it extra ordinary language

In English, a tree is called Tree ,

 In Hindi, a tree is called  पेड़

In Sanskrit वृक्ष = something that is cut and felled down,

तरु = something that floats,

पादप = something that drinks using its feet.

In most of the modern communication protocols, there is a one-to-one correspondence between the words and the objects they represent. But, in Sanskrit, there is a one-to-one correspondence between the words and properties.

Mechanism of generating new words in Sanskrit

words in Sanskrit represent properties while words in the other languages represent objects.

what separates out Sanskrit is enormous ratio of Words representing properties to Words representing objects.

In all, there are 2012 धातु in Sanskrit. We shall take up one धातु as an example for further illustrations. Let’s take the धातु कृ which means to do , make , accomplish , cause , prepare or undertake. Since कृ is a धातु it means that its role in Sanskrit is akin to the role of, say, the element Al (Aluminium) in Chemistry. With Al we can form its oxides, nitrites, sulphides etc. With कृ, we can make its कृदंत words. कृदंत words are those, that can be formed by adding a suffix to a धातु. For example, कृ + तव्यत् = कर्त्तव्य | Here कर्त्तव्य is a कृदंत word, तव्यत् is the suffix and कृ is the धातु.

Similarities between Sanskrit and Programming Languages

मूर्खः परिहर्तव्यः प्रत्यक्षः द्विपदः पशुः  which means..

A stupid person must be avoided. He is like a two-legged animal in-front of the eyes.

why are there only 5 words in the Sanskrit version but so many words in the English version ?

the words in Sanskrit represent properties.  So the 5 words used in this sentence also represent properties.
मूर्ख = (the property of being) stupid
परिहर्तव्य = (the property that makes one) avoidable (by others)
प्रत्यक्ष = (the property of being) in front of the eyes
द्विपद = (the property of) having two legs
पशु = (the property of usually being) tethered

But, in spoken language, we always refer to objects and not properties. (The object being referred to need not exist in the real world. It is sufficient if it exists in the speaker’s imagination.)  So we need a way to force the above words to represent objects rather than properties. That way of forcing a word (which represents a property) to represent an object is called विभक्ति.

So, मूर्ख represents the property of being stupid, but मूर्खः (which is a vibhakti of the word मूर्ख) represents an object/person who is stupid. Here, मूर्खः is called the first vibhakti of the word मूर्ख | Similarly, परिहर्तव्यः is the first vibhakti of the word परिहर्तव्य | So, we have
परिहर्तव्यः = an object/person who must be avoided

Verbless Sentences in Sanskrit!

Way of forcing a word (which represents a property) to represent an object is called विभक्ति.  Let us now settle on the agreement that (x|y) would stand for  the vibhakti-form of  देव in the xth row and yth column of the table. So,  (6|3) = देवानाम् and (1|1) = देवः |

Here are our rules.

Rule1 – A विभक्ति-form of a word always denotes an object having the property that the respective word represents. So, whenever in a  sentence you come across, say, देवस्य or देवैः or देवेषु, it means that an object having the property of being of great excellence exists.

Rule2 – Each विभक्ति-form in the table carries 3 pieces of info with itself viz.

the number of objects (whether singular, dual or plural ?)

the number of the vibhakti (whether it is the first vibhakti or third or eighth ?)

the gender of the object (whether it is a male object or female or neutral ?)

So, (6|3) = देवानाम् carries the info that there are more than 2 masculine objects of sixth vibhakti, having the property of being of great excellence.

Rule3 Every sentence has an action involved in it. (This is a general rule applicable to any language.)

Rule4 Objects having the same विभक्ति point to the same object.

The building blocks of the Sanskrit language

 

Everything in Sanskrit can be broken down into धातुs. Words in Sanskrit not only represent properties and objects but they also represent ideas,  which is the base from which all the other words are derived.

The most basic units of English grammar are the 8 parts of speech viz. Nouns, Pronouns, Adjectives, Adverbs, Verbs, Prepositions, Conjunctions and Interjections.

But the most basic units of Sanskrit grammar are not the parts of speech, but धातुs. Typically, every word in a Sanskrit sentence, be it a noun, an adjective or a verb, is nothing but a different form of one of the 2012 धातुs that pervade the complete Sanskrit literature. A typical Sanskrit sentence is merely a collection of various forms of these धातुs..

कृ can be used to derive nouns like..
कार्य = work, उपकरण = instrument, कर्मन् = deed, प्रक्रिया = process, and many more..

भू can be used to derive nouns like..
भवन = a civil structure, प्रभाव = effect, वैभव = prosperity, भूत = past, उद्भव = source, भविष्य = future, and many more…

Properties, Objects and Ideas

So now that we understand that the nouns, adjectives etc are themselves derivable from the dhAtus, let’s look at the hierarchy of words in Sanskrit.

There are 3 levels of Sanskrit words. The words at each level represent different things. Words at the 1st level represent ideas, those at the 2nd level represent properties and those at the 3rd level represent objects!

Level Number

Idea गम् the idea of going
Properties गति the property of going in a particular manner
३. Object गति a particular instance of going

No punctuation in Sanskrit ?

Given below is a section from महाभारत, where अर्जुन explains to Krishna his logic of not fighting the war. Apart from the literary, philosophical and poetic content, one thing is starkly conspicuous in this.

Where are the punctuation marks?? No commas, no quotations, no semi-colons and no exclamation marks !! All we see are the single and double vertical lines viz.  and . 

If they are punctuation marks, then why are they appearing at such regular intervals ?

अर्जुन उवाच

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः । कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्। कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः। धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥

The flexibility of Sanskrit

Did you know, Sanskrit is a highly word-order free language ?

What does this mean ? It means that you can take a Sanskrit sentence, jumble its words the way you wish and there is good probability that the resulting sentence would still mean the same as the original one. Don’t believe ? Here is an illustration. All the sentences given below mean exactly the same.

SET 1

वासांसि जीर्णानि विहाय नवानि गृह्णाति नरः अपराणि ॥
विहाय जीर्णानि वासांसि नवानि गृह्णाति नरः अपराणि ॥

SET 2
नरः विहाय वासांसि जीर्णानि गृह्णाति अपराणि नवानि ॥

विहाय वासांसि जीर्णानि नरः नवानि अपराणि गृह्णाति ॥
SET3

गृह्णाति नवानि अपराणि नरः विहाय वासांसि जीर्णानि ॥
जीर्णानि विहाय वासांसि गृह्णाति अपराणि नरः नवानि ॥

this flexible word-order makes Sanskrit easier to be understood by a computer because when a sentence is fed to the computer it need not analyse the order of words while processing the sentence!

The efficiency of Sanskrit: Less words more meaning!

Sanskrit increases its efficiency by removing unnecessary, good-for-nothing words from a sentence which the other languages are forced to carry. The language you currently speak contains many redundant words that needlessly lengthen your speech.

Our sample sentences with their translations are given below.

1) Three things must be done before dying.  => त्रीणि कर्तव्यानि प्राङ्मरणात्।
2) A group of boys is playing. => एके बालाः खेलन्ति।
3) Ponds of water are drying. => जलानि शुष्यन्ति।
4) A beautiful woman carries away one’s heart. =>  सुन्दरी मनः मोहयति

All the above translations have a striking feature in common. The Sanskrit version of each sentence is missing some key word(s) of its English counterpart.

In (1), the Sanskrit version does not contain the word for things.
In (2), the Sanskrit version does not contain the word for group.
In (3), the Sanskrit version does not contain the word for ponds.
In (4), the Sanskrit version does not contain the word for woman.

Let’s now try to understand, why the seemingly indispensable words in the English versions of the sentences are redundant in the Sanskrit counterparts.

Temporal order of words in Sanskrit

मूर्खः परिहर्तव्यः प्रत्यक्षः द्विपदः पशुः। 

There we showed that this sentence conveys the existence of a single person who  has 5 properties viz. he is stupid, he must be avoided, he is located in front of the eyes, he has two legs and he is an animal.

But we never discussed about which among the 5 properties comes first.

In other words, how do we decide which of the following translations is the most accurate ?

  1. A stupid person must be avoided. He is like a two-legged animal in-front of the eyes.
  2. The one who is in front of eyes having two legs is animal, stupid and avoidable.
  3. One having two legs in front of eyes is a stupid animal and should be avoided.

 

To answer this question and decide whether option 1 or 2 or 3 is the correct translation, we shall first understand the classification of Sanskrit words according to derivability and usage.

EXAMPLES (PARSING & TAGGING)

गङ्गा\NP.fem.sg.0.i

गङ्गा\NP.fem.sg.nom.i पर्वतराजहिमालयात्\NP.mas.sg.abl.v

प्रभवति\V.sg.3.prs.n ।\PU एषा\PPR.fem.sg.3.nom.i.n.n.prx

सर्वासु\JQ.fem.pl.loc.vii.n.n नदीषु\NC.fem.pl.loc.vii

श्रेष्ठा\JJ.fem.sg.0.i.n.n.n पवित्रतमा\JJ.fem.sg.0.i.n.n.n च\CCD

अस्ति\V.sg.3.prs.n ।\PU गङ्गायाः\NC.fem.sg.gen.i

उद्भवविषये\NC.mas.sg.loc.vii एका\JQ.fem.sg.0.i.n.n

कथा\NC.fem.sg.0.i अस्ति\V.sg.3.prs.n ।\PU

ग्रामं[N_p_2.1] जनपदस्य[N_p_6.1] अर्थे[AVKV]

त्यजेत्[P_li~gVi_1.1]।[PUN_VV]

मनुना[NA_p_3.1] निर्मिता[KB1_s_1.1] अयोध्या[NA_s_1.1] नाम[AV]

नगरी[N_s_1.1] आसीत्[P_la~gB_1.1]।[PUN_VV]

INDIAN PSYCHOLOGY

सिद्धान्त पक्ष

  1. मानवीय व्यवहार स्वरूप भेद
  2. शरीर, इन्द्रियाँ
  3. प्राण का स्वरूप
  4. अन्तःकरण  
  5. भाव
  6. ज्ञान प्रक्रिया
  7. कर्म
  8. वाक् / भाषा
  9. प्रत्यभिज्ञा
  10. प्रतिभा

व्यवहार पक्ष  

उपाय

Standard of Good Governance

न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः॥

अश्वपति आख्यान, छान्दोग्योपनिषद्

मेरे जनपद में –

न तो कोई चोर,

न कुत्सित व्यवहार करने वाला है,

न मद्यपायी है,

न कोई ऐसा गृहस्थी है जिसके अग्नि स्थापित न हो,

कोई अविद्वान् है ,

न स्वेच्छाचारी पुरुष है तो स्वेच्छाचार करने वाली स्त्री कहाँ होगी।

Directive Principles of Good Governance

दुष्टस्य दण्डः सुजनस्य पूजा न्यायेन कोषस्यसंप्रवृधिः

      अपक्षपातोऽर्थिषु राष्ट्ररक्षा पञ्चैव यज्ञाः कथिता नृपाणाम्  अत्रि स्मृति-२८

“To punish the wicked, to protect the good, to enrich the treasury [exchequer] by just methods, to render justice impartially to the litigants and to protect the kingdom- these are the five Yajanas [self duties] to be performed by a king [the state]”.

केवलं शास्त्रमाश्रित्यकर्त्तव्यो विनिर्णयः

      युक्तिहीनेविचारे तु धर्महानिः प्रजायते  बृहस्पति स्मृति

A decision should not be given by merely relying on the text or letters of the Shastras. I f a decision is arrived at without considering the facts and circumstances of the case; it results in the defeat of Dharma [failure of justice].

व्यवहारविदः प्राज्ञा वृत्तशीलगुणन्विताः। रिपौ मित्रे समा ये च धर्मज्ञास्सत्यवादिनः॥

निरालसा जितक्रोधकामलोभाः प्रियंवदा। राज्ञा नियोजितव्यास्ते सभ्यास्सर्वासु जातिषु॥ शुक्रनीति, ४-५-१५-१८

“One who is well versed in civil and criminal law and procedure, spiteful, of sterling character, impartial towards friends and foes, of Dharma abiding nature, truthful, ever active and who has established control over anger, desire and greed and pleasant in speech and demeanor should be appointed a judge.

  कालहरणं कार्यं राज्ञा साक्षिप्रभाषणे

         महान् दोषो भवेत्कालाद् धर्मव्यावृत्तिलक्षणःकात्यायन स्मृति, ३३९

“The King [court] should not delay in examining the witnesses and deciding cases. A serious defect, namely, miscarriage of justice was would result owing to such delay.”

 

सुशासन-तन्त्र के सन्दर्भ में रामायण आधारित प्रश्नावली

  • क्या आज धर्म पर तत्पर रहने वाले विद्वानों की यथावत् पूजा होती हैं ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/९)
  • क्या आज योग्य, शास्त्रों को जानने वाले, विद्वान, जितेन्द्रिय, कुशल व्यक्तियों को राज्य का अधिकारी अथवा मन्त्री बनाया जाता है ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/१५)
  • क्या आज मन्त्रियों द्वारा राज्य के विकास सम्बन्धी मन्त्रणाओं को गुप्त रखा जाता है ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/१६)
  • क्या राज्य की नीतियों को लागू करने में विलम्ब तो नहीं किया जाता ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/१९)
  • क्या राज्य में घूस न लेने वाले, श्रेष्ठ आचरण करने वाले मन्त्रियों तथा राज्याधिकारियों की नियुक्ति की गई है ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/२६)
  • क्या प्रजा, राज्य द्वारा अधिक कर लिये जाने पर सरकार का अनादर तो नहीं करती हैं ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/२८)
  • क्या वर्तमान में प्रजा कठोर दण्ड की व्यवस्था के कारण उद्विग्न होकर राज्याधिकारियों अथवा मन्त्रियों का तिरस्कार तो नहीं करती ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/२७)
  • क्या राज्य की सुरक्षा के लिये बुद्धिमान, शूर-वीर, रणकर्मदक्ष सैन्य-अधिकारियों की नियुक्त किया है ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/३०)
  • क्या राज्य के कर्मचारियों तथा सैनिकों को वेतन और भत्ता समय पर प्राप्त होता है ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/३२ )
  • क्या राज्य में स्त्रियाँ सन्तुष्ट तथा सुरक्षित हैं? (वाल्मीकि रामायण २/१००/४९)
  • क्या राज्य द्वारा अपने ही देश के निवासी, प्रतिभाशाली और सद्विवेकयुक्त बात कहने वाले राजदूत को नियुक्त किया गया है ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/३५)
  • क्या राज्य में हिंसा और भयरहित वातावरण है ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/४४)
  • क्या शत्रुओं से रक्षा के लिये तथा राज्य की उचित देखभाल के लिये योग्य गुप्तचरों की नियुक्ति की गई है ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/३५)
  • क्या राज्य की सुरक्षा के लिये उचित प्रबन्ध किये गये हैं ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/४२)
  • क्या किसानों को खेती के लिये वर्षा के जल पर निर्भर न रहकर, सिंचाई के लिये नदियों का जल प्रयोग करते हैं? (वाल्मीकि रामायण २/१००/४५)
  • क्या राज्य में कृषि तथा व्यापार की दशा अच्छी तथा उद्देश्य की सिद्धि करने वाली हैं? (वाल्मीकि रामायण २/१००/४६)
  • क्या आज देश धन-धान्य से सम्पन्न तथा सुखपूर्वक बसा हुआ है? (वाल्मीकि रामायण २/१००/४७-४८)
  • क्या राज्य में वन तथा पशु-पक्षि सुरक्षित हैं१८? (वाल्मीकि रामायण २/१००/५०)
  • क्या राज्य के अधिकारियों के आम लोगों से परस्पर व्यवहार करते हैं ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/५१)
  • क्या राज्य आर्थिक, यान्त्रिक तथा सैन्य अस्त्र-शस्त्रों, सैनिकों से परिपूर्ण है ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/५३)
  • क्या राज्य का धन अपात्रों के हाथ में है ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/५४)
  • राज्य में निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था है ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/५६)
  • क्या लोभ के कारण किसी निर्दोष को दन्डित किया जाता है ? (वाल्मीकि रामायण २/१००/५६)
  • क्या अपराधी घूस के देकर दण्ड से मुक्त हो जाते हैं? (वाल्मीकि रामायण २/१००/५७)
  • क्या राज्य के मन्त्री धन के लोभ में न्याय व्यवस्था से हस्तक्षेप करते हैं? (वाल्मीकि रामायण २/१००/५८)

 

राज-व्यवहार की मूल्यांकन प्रश्नावली– किरार्जुनीयम् के सन्दर्भ में

  • क्या शासन-व्यवस्था प्रजा-रञ्जन पर आधारित है ? (किरातार्जुनीयम १/१७)
  • क्या राष्ट्र के अधिकारी आलसी, स्वार्थी तथा असावधानी पूर्वक कार्य करने वाले हैं ? (कि०१/९)
  • क्या शासन केवल सैन्य बल से चलाया जाता है ? (कि०१/९)
  • क्या शासन अपने कर्मचारियों से उचित व्यवहार करता है? (कि०१/१०)
  • क्या शासन के अधिकारी वर्ग राष्ट्र की स्थिरता और हित के लिये परस्पर एकमत हैं ? (कि०१/११)
  • क्या योग्य अधिकारियों, कर्मचारियों तथा विशेष गुणों से युक्त जनों का सम्मान किया जाता है ? (कि०१/१२)
  • क्या राष्ट्र की आर्थिक नीति समृद्धि को बढाने वाली है ? (किरातार्जुनीयम १/१५)
  • क्या न्याय व्यवस्था पक्षपात रहित और धर्म पर आधारित है ? (कि०१/१३)
  • क्या अधिकारी वर्ग राजकीय कार्य पूर्ण निष्ठा व निज कर्त्तव्य समझ कर करते है ? (कि०१/१३)
  • क्या न्याय व्यवस्था अपराधों को रोकने में सक्षम है? (कि०१/१३)
  • क्या देश की सुरक्षा के लिये उचित सुरक्षा तन्त्र का निर्माण किया है ? (कि०१/१४)
  • क्या मित्र व शत्रु राष्ट्रों पर नजर रखने के लिये मजबूत गुप्तचर प्रणाली की व्यवस्था है ? (कि०१/१४)
  • क्या किसानों को खेती के लिये उचित साधन उपलब्ध है ? (किरातार्जुनीयम १/१७)
  • क्या किसानों को सिंचाई करने के लिये पर्याप्त जल उपलब्ध हैं ? (कि०१/१७)
  • क्या किसान अपने परिश्रम से अधिक व प्रचुर मात्रा में अन्न उत्पन्न करने में सक्षम है ? (कि०१/१७)
  • क्या सेना में गुटबन्दी और अविश्वास का वातावरण है ? (कि०१/१८)
  • क्या विकास की परियोजनायें अधूरी छोड दी जाती हैं ? (कि०१/२०)
  • क्या जनता शासन के आदेशों का पालन स्वेच्छा से तथा राष्ट्र प्रेम की भावना से करती हैं ? (कि०१/२१)
  • क्या शासन की नीतियाँ भौतिक उन्नति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति में भी सहयोगी हैं ? (कि०१/२२)

 

सुशासन-तन्त्र के सन्दर्भ में – महाभारत पर आधारित प्रश्नावली

  • क्या आज राज्य सम्बन्धी कार्यों के निर्वाह के लिये पर्याप्त धन उपलब्ध हैं१? (महाभारत/ सभापर्व २/५)
  • क्या आज सरकार द्वारा कृषि, व्यापार, सुरक्षा, पुलों का निर्माण, कर आदि कार्यों का उचित प्रबन्धन किया जाता है२? (म० भा० स०पर्व २/१०)
  • क्या आज वृद्ध अनुभवी, शुद्ध हृदय वाले, कुशल, कुलीन और विद्वान पुरूषों को मन्त्री के पद पर नियुक्त किया जाता है३? (म० भा० स०पर्व २/१३)
  • क्या राज्य की विकास सम्बन्धी नीतियों को लागू करने में विलम्ब तो नहीं किया जाता४? (म० भा० स०पर्व २/१६)
  • क्या राज्य का धनी वर्ग व्यसनों से बचे हुये हैं५? (म० भा० स०पर्व २/११)
  • क्या राज्य के किसानों और श्रमजीवी मनुष्यों की अवज्ञा तो नहीं की जाती है६?(म० भा० स०पर्व २/१७)
  • क्या राज्य में धर्म और सम्पूर्ण शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वानों को शिक्षक नियुक्त किया गया है७?   (म० भा० स०पर्व २/१९)
  • क्या आज राज्य में धन-धान्य, अस्त्र-शस्त्र, जल, यन्त्रों और सैनिकों की पर्याप्त व्यवस्था है८?   (म० भा० स०पर्व २/२२)
  • क्या राज्य के कर्मचारियों तथा सैनिकों को वेतन और भत्ता समय पर प्राप्त होता है९? (म० भा० स०पर्व २/२३)
  • क्या शत्रुओं से रक्षा के लिये तथा राज्य की उचित देखभाल के लिये योग्य गुप्तचरों की नियुक्ति की गई है१०? (म० भा० स०पर्व २/३२)
  • क्या राज्य का कार्य न्यायपूर्वक चलता हैं११? (म० भा० स०पर्व २/२८)
  • क्या लोगों को कठोर दण्ड से पीडित तो नहीं किया जाता हैं१२? (म० भा० स०पर्व २/२८)
  • क्या लोगों द्वारा कठोरतापूर्वक कर तो नहीं ग्रहण किया जाता१३? (म० भा० स०पर्व २/२९)
  • क्या राज्य की सुरक्षा के लिये शूरवीर, निर्भय, निष्कपट और पराक्रमी सैन्य-अधिकारी को नियुक्त किया गया है१४? (म० भा० स०पर्व २/३०-३१)
  • क्या राज्य द्वारा पुरूषार्थी व्यक्तियों को सम्मानित किया जाता है१५? (म० भा० स०पर्व २/३६)
  • क्या विद्या से विनयशील और ज्ञान तथा कला निपुण मनुष्यों को यथायोग्य धन आदि पुरुस्कारों से सम्मानित किया जाता हैं१६? (म० भा० स०पर्व २/३७)
  • जो व्यक्ति राज्य की सुरक्षा व हित के लिये अपने प्राणों को सहर्ष त्याग देते हैं, उनके परिवार के योग-क्षेम की व्यवस्था की जाती है१७? (म० भा० स०पर्व २/३८)
  • क्या सरकार द्वारा वृद्धों, गुरूजनों, दीन-दुखियों और असहाय लोगों को धन-धान्य आदि की सहायता दी जाती है१९? (म० भा० स०पर्व २/४७)
  • क्या राज्य के अधिकारी लोभी, अपराधी अथवा व्यावहारिक अनुभव हीन तो नहीं है२०? (म० भा० स०पर्व २/४८)
  • क्या जनता सरकार को समदर्शी तथा विश्वसनीय मानते है१८? (म० भा० स०पर्व २/४०)
  • क्या राष्ट्र के अधिकारियों या उनके सम्बन्धियों द्वारा जनता को पीडा तो नहीं पहुँचाई जाती है२१? (म० भा० स०पर्व २/४९)
  • क्या राज्य के किसान सन्तुष्ट हैं, उन्हें खेती के लिये केवल वर्षा के जल पर ही निर्भर रहना पडता है२२? (म० भा० स०पर्व २/४९-५०)
  • क्या किसान का अन्न या बीज नष्ट तो नहीं होता२३? (म० भा० स०पर्व २/५१)
  • क्या किसानों को ब्याज पर ऋण दिया जाता है२४? (म० भा० स०पर्व २/५१)