कववता के क्ष े त्र में साहसपूणग उद्यम करने से पूवग व्य न्त ि को सम्वेदना की क्ष मता चावहए विर उसका सांस्कार करना अपेवक्षत होता है तदनिर उसे कववता को आकार देने का और सुनने का अवधकार वमलता है तभी एक कवव या कवववयत्री ने जैसा देखा होता है, जैसा उसने सुना होता है और जैसा उसे ज् ात होता – वह उसकी पररवध से बाहर जाकर अपनी प्र ावतभ क्ष मताको कववता के माध्यम से अवभव्यि करता है- यह प्र ावतभ अनुभव कवव के भीतर के अनुभवोां, ज् ान , शब्दो , अथों , अपेक्षाओां , वववभन्न भावोां –ववचारोां , ववववध सीवमतताओां के मध्य समन्वय करती है वजससे कवव का व्य न्त ित्व न के वल आकार लेता है बन्तल्क अखण्ड भी रहता है और ऐसा प्र ावतभ प्र वक्रया के स्प न्द डा० अवनता जैन के ’मुस्कानोां के झरने’ नामक कववता सांग्रह मे अवभव्यि होता वदखाई देता है। अवनता जैन जी के साथ ’ववपुला’ शब्द इस बात का प्र तीक है वक उनके अिस्ल में अनुभवोां, शब्दोां , अथों और अवभव्यन्तियोां के अनेकानेक आयाम हैं यावन वक अवनता जैन जी के साथ सांलग्न ’ववपुला’ उनके व्य न्त ित्व की भरपूरता का वाचक है – इसमें कोई सन्देह नही ां हो सकता क्य ोांवक उनकी प्र थम कववता ’मुस्कानोां के झरने’ ही स्प ष्ट कर देती है वक कवववयत्री अनि की यात्रा के वलए अपने अनुभवो, शब्दोां , अथो, ववचारोां, भावोां और दृ वष्ट की स्प ष्ट ता के साथ सन्नि है , उसके पास – मयागदा भी है और प्र वाह भी है, रचनात्मकता भी और नूतनता भी है, उत्सुकता भी है तो साथ ही प्र योजनवत्ता भी है जो उनके ’अिस् के तीर’ में पूणगता की ओर अग्रसरता को ’ आशा की छााँव से’ स्व यां को परामशग (काऊाँसवलांर् ) करते हु ए हर उन्मुि ’क्ष ण ववलक्षण ’ की नवीनता को प्र कृ वत के प्र काश ववमशग से (विर आई सुबह सुहानी) सद्यःस्नात होने से जो “उमडते जज़्बात ’ से सम्पूणग मनुष्यता को धारण करने का सत्सांकल्प मे वदखाई देता है और तभी कवव मन ’ऐ सााँझ तू मुस्काई ’ में प्र काश के प्र वत आननदमयी कृ तज्ता को व्य ि करते हु ए ’जीवन सुन्दर है’ में अनेकानेक स्प दनोां को ’प्रेम ’ में सिलता पूवगक अवभव्यि करती हु ई ’आशा’ से प्र काश के सभी रांर्ोां को शब्दोां से स्प शग कर लेती हैं। लेवकन ववपुला के वलए कववता ”वनमागण’ नही ां है क्य ोांवक वह सांरवचत होने के बाद कवव कमग के अथगहीन हो जाती है, उनके वलए वह ’रोपण’ है वजसे वनरिर सहेजना सम्भालना पडता है, वह दावयत्व है वजससे आप मुि नही ां हो सकते और इसी कारण कवव कमग और उसकी दृ वष्ट ती सौ साठ वडग्री पर घूमती हु ई “लह का रांर् ’ में मनुष्यता के व्य वहार प्र वत वचिा को प्र कट कते हु ए ’प्रेम नदी’ में उसको स्न ान करवा कर ’बीते रात के अाँवधयारे’ से वनकाल कर जीवन रू पी ’कववता कहााँ से आती है’ के सम्बन्ध में एक वनमगला वजज्ासा को साथ लेते हु ए ’ कौन तुम अज्ेय ’ से अपने और अनिता के के सम्बन्ध की वजज्ासा की ओर उन्मुख होती हु ई ववचार पूवगक’ एक पन्थ दो काज’ में समाज के व्य न्त ि के सुधारक सम्बन्धोां को वदशा देती हु ई ’शमागई सुबह’ से वनत्य नवीन कत्तगव्य कमग के प्र वत सचेतता को सम्बोवधत करते हु ए अनि चेतन पुरुष के प्र वत आह्वान “ बस तुम वमल जाओ’ को अत्यि सम्वेदनशीलता का सिल प्र कटन ’प्रेम का सार्र ’ में वमलता है जो भाव ववपुलता को अनिता के अनुभव की ओर अग्रसर कर देता है जहााँ के वल एक ही वजज्ासा रह जाती है और वह है अपने ’होने की खोज’ लेवकन कवव- हृ दय के भाव बीच बीच में ववचार के बाणोां से आहत भी होता वदखाई देता है जहााँ वह ’वज़न्दर्ी ’ को पररभावषत करना चाहती हैं लेवकन विर मुख्य भाव “ अन्तिम सत्य ’ की ओर अग्रसर हो जाती है जो वक एक शुभ सांके त है वक कवव ’ वववभन्न ’झांझावातोां’ में भी भटका नही ां है , जार्रूक है, सजर् है, मयागवदत एवम् वनष्ठापूणग है। सभी कववताओां की ववस्ार पूवगक आलोचना करने के वलए पयागप्त समय और श्र म अपेवक्षत है क्य ोांवक यह कववताएां सामान्य प्र वाह से वभन्न इस अथग में हैं वक इनमें भाव ववचार से बन्धे हैं, मानवीय आशा दशगन से ओतप्रोत है, भाषा मन के अनुकू ल सहज, अथगर्म्य होने के साथ साथ आथग र् ाम्भीयग से समवेत है और साथ ही कवव की रचनाएां उसके भोिाभाव, ज् ाताभाव एवम् कतागभाव की द्य ोतक हैं। ’नेह स्प शग ’, ’भीर्ा मन-सांसार’, ’एकात्म ’, ’सत्य की जीत’, ’हे प्र भु ’आवद कई ऐसी कववताएां है जो कवववयत्री के तीन बोध के स् रोां को दशागती हैं – एक -जहााँ वह वकसी एक भाव से अपने को एकात्म करती हैं , दूसरा जब वह स्व यां वकसी अन्य भाव से अपने को एकात्म करती हैं और तीसरा- जहााँ वह स्व य और भाव को अलर् अलर् देखती जानती और समझती हैं और यह एक प्र शांसनीय बात है साथ ही साथ ववपुला जी की ऐसी कववताओां को तीन दृ वष्टयोां से देखे वबना सवागङ्ग जानना या समालोवचत करना कवठन होर्ा और वे तीन दृ वष्टयोां में से पहली दॄवष्ट तो यह है वक यह कववताएां अपने में मानवीय व्य वहार के अनेक पक्षोां के समाववष्ट वकए हु ए हैं, दूसरी दृ वष्ट है उसमें काल प्र वाह में सतत प्र वहमान वैचाररकता का समवेतत्व , वह कोई कालयात्रा में न्त स् थर जड ववचार वबन्दु नही ां है और तीसरी दृ वष्ट है वक ववपुला जी कववताओां में मूल्यपरकता का समावेश- इसवलए इन दृ वष्टयोां से ववपुला जी रचनाएां सार- सरस-ववचार-भाव प्र कटन में सिल हैं। हााँ एक ध्य ातव्य है वक कवववयत्री ने कही ां कही ां समावेश की अवस्था में (सम्भवतः ) उदूग की शब्दोां का प्र योर् अवभव्यन्तियोां और शीषगकोां में वकया है जो कववताओां की मुख्य वहन्दी धारा में अलर् से टुकडे के रू प में वदखाई देता हैं – हलाांवक उदूग शब्दोां का प्र योर् कोई दोष नही ां है परिु वह अवभव्यन्ति की मुख्यधारा और उसके स् र के वलए पयागप्त अनुकू ल नही ां है।
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